Short Story In Hindi With Moral For Adults – यहाँ पर बच्चों एवं व्यस्को के लिए नैतिक शिक्षा की कुछ कहानियाँ दी गई है. जिसे आपको जरूर पढ़नी चाहिए. क्योंकि यह कहानियाँ हमें जीवन की अनमोल ज्ञान और अच्छी नैतिक सीख भी देती है.
दया की शक्ति
पुराने समय की बात है, एक गाँव में रामलाल नाम का एक किसान रहता था। रामलाल का दिल बहुत बड़ा था और वह अपनी छोटी सी खेती से जैसे-तैसे अपना गुजर-बसर कर रहा था। वह हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहता था, लेकिन खुद आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहा था। उसके पास एक छोटी सी जमीन थी, जिस पर वह मेहनत कर के अपनी फसल उगाता और साल भर का गुजारा करता।
एक दिन जब रामलाल अपने खेत पर काम कर रहा था, तभी उसने एक आवाज सुनी। उसने देखा कि एक छोटी सी चिड़िया उसके खेत में घायल पड़ी है। शायद किसी ने उस पर पत्थर फेंका था, जिससे उसका एक पंख टूट गया था और वह उड़ नहीं पा रही थी। रामलाल के दिल में दया आ गई। उसने अपनी सारी मेहनत और समय उस चिड़िया की देखभाल में लगा दी।
रामलाल ने चिड़िया को अपने घर ले जाकर उसका इलाज करना शुरू किया। उसने कुछ जड़ी-बूटियों से उसका उपचार किया, और धीरे-धीरे चिड़िया का घाव भरने लगा। वह चिड़िया को हर दिन दाना-पानी देता और बड़े प्यार से उसकी देखभाल करता। कुछ हफ्तों बाद, चिड़िया पूरी तरह से स्वस्थ हो गई और एक दिन उसने उड़ने की कोशिश की। रामलाल को यह देखकर बहुत खुशी हुई कि चिड़िया फिर से उड़ने के काबिल हो गई थी। उसने चिड़िया को आकाश में उड़ते हुए देखा और खुश होकर उसे अलविदा कहा।
वह चिड़िया रामलाल के खेत से उड़ गई, लेकिन उसकी इस मदद को भूल नहीं पाई। वह चिड़िया अपने झुंड में वापस गई और वहां उसने अपने साथियों को रामलाल के बारे में बताया। उस साल फसल का समय आया और रामलाल की फसल पकने लगी। लेकिन जैसे ही फसल तैयार होती, कीड़े फसल पर हमला कर देते, और आसपास के किसान परेशान होकर अपनी फसल को बचाने का उपाय सोचने लगे। रामलाल को भी फसल का नुकसान होने का डर था, लेकिन उसने कुछ नहीं किया और सोचा कि भगवान जो करेगा, अच्छा करेगा।
अगले दिन जब रामलाल अपने खेत पर आया तो उसने देखा कि उसकी फसल एकदम सुरक्षित है, जबकि आसपास के खेतों में कीड़े लग गए थे। वह आश्चर्यचकित था कि उसके खेत को कीड़ों ने क्यों नहीं छुआ। फिर उसने गौर किया कि उसके खेत के चारों ओर ढेर सारी चिड़ियाएं बैठी हुई थीं, जो हर कीड़े को चोंच मारकर खा रही थीं। रामलाल को समझ में आया कि वह वही चिड़िया और उसके साथी थे, जिन्हें उसने कभी मदद की थी।
अब रामलाल को महसूस हुआ कि उसकी दया और करुणा का यह फल उसे मिल रहा है। चिड़िया ने उसकी फसल की रक्षा करने के लिए अपने साथियों को बुला लिया था। उसकी पूरी फसल बच गई और उसे किसी भी तरह का नुकसान नहीं हुआ। रामलाल ने उस दिन समझा कि दया और करुणा कभी व्यर्थ नहीं जातीं। जिस तरह उसने एक छोटी सी चिड़िया की जान बचाई थी, उसी तरह उस चिड़िया ने उसकी फसल की रक्षा करके उसकी मदद की।
रामलाल ने अपनी फसल बेचकर उस साल अच्छी कमाई की और उसने अपने जीवन में दया और सेवा के इस भाव को और भी मजबूत कर लिया। उसे यह सबक मिल चुका था कि भले ही किसी की मदद करने से हमें तुरंत कुछ न मिले, परन्तु ईश्वर किसी न किसी रूप में हमें इसका फल अवश्य देता है।
शिक्षा: दया और करुणा कभी व्यर्थ नहीं जाती। यदि हम किसी की सच्चे दिल से मदद करते हैं, तो वह हमारे पास किसी न किसी रूप में लौटकर आती है।
अन्याय का प्रतिकार
यह कहानी एक छोटे से गाँव की है, जहाँ एक अमीर और शक्तिशाली जमींदार का राज चलता था। गाँव के लोग उसकी ज़मीन पर मेहनत-मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते थे। लेकिन जमींदार का स्वभाव बहुत कठोर और अन्यायी था। वह गरीब किसानों से बहुत सारा कर वसूलता और उनसे मनमाना काम करवाता। अगर कोई किसान उसकी बातों का विरोध करता तो जमींदार उसे तरह-तरह की सज़ाएँ देकर डराता और अन्य लोगों के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करता ताकि लोग उससे डरें और उसके आदेश का पालन करें।
गाँव में रघु नाम का एक साधारण किसान रहता था। रघु ईमानदार और मेहनती था, लेकिन जमींदार के अत्याचारों से वह भी तंग आ चुका था। रघु ने कई बार सोचा कि इस अन्याय का विरोध किया जाए, लेकिन गाँव के बाकी लोग जमींदार के डर से चुप रहते थे। रघु के पास भी सीमित साधन थे और उसका परिवार भी उसी पर निर्भर था। इसलिए वह हमेशा अपने मन में द्वंद्व रखता कि आखिर कैसे इस अन्याय का सामना किया जाए।
एक दिन जमींदार ने रघु से उसकी फसल का तीन-चौथाई हिस्सा कर के रूप में मांग लिया। रघु ने विनम्रता से कहा, “मालिक, अगर मैं इतनी फसल आपको दे दूँगा तो मेरे परिवार का गुजारा कैसे होगा? मैं इतना कर्ज में डूब चुका हूँ कि अब मेरी हालत बहुत खराब है।” जमींदार ने उसकी बात को अनसुना कर दिया और गुस्से में कहने लगा, “मुझे तुम्हारी हालत से कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारा घर और जमीन दोनों मुझसे ले लूँगा।”
रघु को इस अन्याय ने झकझोर कर रख दिया। उसने तय किया कि अब वह और चुप नहीं बैठेगा। उस रात रघु ने गाँव के कुछ समझदार और साहसी लोगों को अपने घर बुलाया। उसने सभी को अपनी बात बताई और कहा, “अगर हम सभी मिलकर इस अन्याय का सामना करेंगे, तभी हमें न्याय मिलेगा। लेकिन यह तभी संभव है जब हम सभी एकजुट हो जाएँ और जमींदार का विरोध करें।” कई लोगों को पहले तो डर लगा, लेकिन रघु की बातों ने उनमें एक साहस भर दिया।
गाँव के लोगों ने एकजुट होकर योजना बनाई कि वे जमींदार को कर नहीं देंगे और उसकी मनमानी का विरोध करेंगे। अगले दिन सभी किसान अपने अपने खेतों में काम पर नहीं गए। जमींदार के आदमी कर वसूलने आए तो किसी ने भी कर देने से इनकार कर दिया। जमींदार को यह सुनकर बहुत गुस्सा आया और वह खुद गाँव में आ धमका। उसने सभी को धमकी दी कि अगर उन्होंने उसकी बात नहीं मानी, तो वह सबकी जमीनें जब्त कर लेगा।
लेकिन इस बार गाँव वाले डरने के बजाय एकजुट होकर खड़े रहे। उन्होंने जमींदार को साफ-साफ कह दिया, “हम सब मेहनत करने वाले लोग हैं, और यह हमारी फसल है। आप हमारे साथ अन्याय नहीं कर सकते। हम सबने मिलकर फैसला किया है कि अब हम अपना हक लेकर रहेंगे और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएंगे।”
जमींदार को इतनी बड़ी बगावत की उम्मीद नहीं थी। वह कुछ देर के लिए हक्का-बक्का रह गया। गाँववालों की एकता और साहस को देखकर उसे महसूस हुआ कि अब उसका आतंक खत्म हो चुका है। उसने कुछ समय सोचा और फिर सभी के सामने झुकते हुए कहा, “ठीक है, मैं अब तुम लोगों पर किसी तरह का ज़बरदस्ती का कर नहीं लगाऊँगा। जो भी कर लगेगा, वह उचित होगा और तुम्हारी फसल का बहुत कम हिस्सा होगा।”
इस तरह गाँववालों की एकता ने जमींदार को झुकने पर मजबूर कर दिया। गाँव में अब न्याय और शांति का माहौल बन गया और सभी ने मिलकर सुख-शांति के साथ जीवन जीना शुरू कर दिया। रघु गाँव का नायक बन गया, और लोगों ने उसे धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें अन्याय के खिलाफ खड़े होने की शक्ति दी।
शिक्षा: अन्याय का प्रतिकार तभी संभव है जब हम एकजुट होकर साहस के साथ उसका सामना करें। एकता में अपार शक्ति होती है, जो किसी भी बड़े से बड़े अन्याय को खत्म कर सकती है।
समय का सदुपयोग
किसी गाँव में मोहन नाम का एक किसान रहता था। मोहन मेहनती था, लेकिन एक बहुत बुरी आदत से ग्रसित था — वह हर काम को टालता रहता था। अगर उसे आज खेत में बीज बोने जाना होता, तो वह कल पर टाल देता। इसी तरह, पानी देने का काम भी कभी-कभी दो-तीन दिन तक टाल देता। हर बार वह अपने दोस्तों से कहता, “अरे भाई, आज थक गया हूँ, कल सुबह जल्दी उठकर सारा काम कर लूँगा।” लेकिन फिर अगली सुबह वह और भी ज्यादा थकान महसूस करता और काम फिर से टल जाता।
मोहन की यह आदत सिर्फ खेती तक ही सीमित नहीं थी। वह अपनी जिंदगी के हर काम को इसी तरह टालता रहता था। गाँव के बुजुर्ग उससे अक्सर कहते, “बेटा, समय का सदुपयोग करना सीखो, वरना एक दिन पछताना पड़ेगा।” लेकिन मोहन उनकी बातों पर ध्यान नहीं देता और हमेशा सोचता कि उसके पास तो पूरा जीवन पड़ा है, वह सब काम धीरे-धीरे कर ही लेगा।
एक साल की बात है, समय पर बारिश नहीं हुई थी और खेती के लिए उपयुक्त मौसम निकलने ही वाला था। गाँव के सभी किसानों ने तेजी से अपने खेतों में बीज बोने शुरू कर दिए थे ताकि फसल का नुकसान न हो। लेकिन मोहन ने सोचा, “अभी तो मौसम ठीक है, कुछ दिन और इंतजार कर लेता हूँ। मैं आराम से बाद में बीज बो दूँगा।” यह सोचकर उसने बीज बोने का काम कुछ दिनों के लिए टाल दिया।
कुछ ही दिनों में बारिश का मौसम आया और फिर तेज बारिश होने लगी। गाँव के सभी किसानों की फसलें अच्छी तरह उगने लगीं, क्योंकि उन्होंने समय पर बीज बो दिए थे। लेकिन जब मोहन ने देखा कि बारिश शुरू हो चुकी है, तब उसे चिंता होने लगी। वह तुरंत बीज लेकर खेत में पहुंचा, लेकिन अब समय निकल चुका था। जमीन में इतना पानी भर गया था कि बीज बोना असंभव हो गया था।
मोहन ने कई कोशिशें कीं, लेकिन उसके खेत में बीज सही तरीके से नहीं बोए जा सके। जब अन्य किसानों की फसलें लहलहाने लगीं, तब मोहन के खेत खाली पड़े रहे। उसे अपने आलस्य और टालमटोल की आदत पर पछतावा होने लगा। उसने महसूस किया कि अगर उसने समय पर काम कर लिया होता, तो उसकी भी फसल आज लहलहा रही होती। उसे अपने परिवार की चिंता सताने लगी, क्योंकि फसल न होने की वजह से अब साल भर का राशन जुटाना मुश्किल हो गया था।
मोहन को अब समझ में आ गया था कि उसने समय की अनदेखी करके कितनी बड़ी गलती की है। उसने सोचा, “अगर मैंने सही समय पर बीज बो दिए होते, तो आज मुझे ये दिन नहीं देखना पड़ता।” वह अपनी गलती का पश्चाताप करने लगा, लेकिन अब पछताने से कोई फायदा नहीं था।
इस कठिनाई से गुजरने के बाद मोहन ने ठान लिया कि अब वह कभी भी किसी भी काम को कल पर नहीं टालेगा। उसने समय का महत्त्व समझ लिया था और यह भी जान गया था कि समय का सदुपयोग ही जीवन में सफलता का असली मंत्र है। अगले साल उसने समय पर ही अपने खेतों में बीज बो दिए और मेहनत करने लगा। इस बार उसकी फसल बहुत अच्छी हुई, और उसने पहले से कहीं अधिक लाभ कमाया।
मोहन की यह कहानी गाँव में सभी के लिए एक उदाहरण बन गई। लोग उसकी कहानी सुनकर समय का महत्व समझने लगे और सभी ने उसे अपने जीवन में अपनाने का प्रयास किया।
शिक्षा: समय का सदुपयोग करना बहुत आवश्यक है। जो काम आज करना है, उसे कल पर टालने से केवल नुकसान ही होता है। समय की कदर करने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन में सफलता प्राप्त करता है।
जीवन का मूल्य
बहुत समय पहले की बात है, एक छोटे से कस्बे में अर्जुन नाम का एक युवक रहता था। अर्जुन मेहनती और ईमानदार था, लेकिन अक्सर अपने जीवन की कठिनाइयों से परेशान रहता और जीवन के प्रति निराश रहता। उसे हमेशा लगता कि उसका जीवन व्यर्थ है और उसे कुछ भी सार्थक नहीं लग रहा था। उसे अपने काम और रिश्तों में खुशी महसूस नहीं होती थी, और वह हमेशा दूसरों से तुलना करके अपने आपको कम आंकता रहता था।
एक दिन अर्जुन की मुलाकात एक साधु से हुई, जो उस कस्बे में प्रवचन देने के लिए आए थे। अर्जुन ने साधु से अपनी समस्या बताते हुए कहा, “महाराज, मेरे जीवन में कुछ भी सार्थक नहीं है। मैं अपने जीवन का मूल्य नहीं समझ पा रहा हूँ और मुझे लगता है कि मेरा जीवन बेकार है।”
साधु मुस्कुराए और बोले, “अर्जुन, तुम अपने जीवन का मूल्य समझना चाहते हो, तो मैं तुम्हें एक काम देता हूँ।” यह कहकर साधु ने अपनी जेब से एक चमकीला पत्थर निकाला और अर्जुन को देते हुए कहा, “इस पत्थर को लेकर बाजार जाओ और इसके बदले में इसकी कीमत पूछना। लेकिन ध्यान रखना, इसे बेचना नहीं है। बस जो कीमत लोग बताते हैं, उसे सुनकर लौट आना।”
अर्जुन थोड़ा हैरान हुआ, लेकिन उसने साधु की बात मान ली। वह पत्थर लेकर पहले एक सब्जी वाले के पास गया और उससे पूछा, “भैया, इस पत्थर की क्या कीमत हो सकती है?” सब्जी वाला उसे देखकर हंसते हुए बोला, “यह पत्थर मेरे किसी काम का नहीं है, लेकिन अगर तुम इसे देना चाहो तो मैं इसके बदले में दो किलो आलू दे सकता हूँ।”
अर्जुन ने धन्यवाद कहकर वहां से विदा ली और फिर एक सुनार के पास गया। सुनार ने पत्थर को देखा और कहा, “यह पत्थर कुछ कीमती तो लग रहा है, लेकिन इसमें इतनी खास बात नहीं है। मैं इसके बदले तुम्हें 500 रुपये दे सकता हूँ।” अर्जुन ने फिर से धन्यवाद कहा और आगे बढ़ गया।
अब अर्जुन एक बहुमूल्य रत्नों की दुकान पर गया। वहां के जौहरी ने पत्थर को ध्यान से देखा, और उसकी आंखें चमक उठीं। उसने अर्जुन से कहा, “यह तो एक दुर्लभ और अनमोल पत्थर है। मैं इसे खरीदने के लिए तुम्हें 50 लाख रुपये तक देने को तैयार हूँ।” अर्जुन यह सुनकर चकित रह गया और उसने जौहरी से कहा कि वह इसे बेच नहीं सकता और साधु के पास लौट गया।
साधु ने अर्जुन के चेहरे पर आश्चर्य देखा और मुस्कुराते हुए पूछा, “बोलो अर्जुन, लोगों ने इस पत्थर की क्या कीमत लगाई?” अर्जुन ने सबकुछ बताया और अंत में कहा, “महाराज, यह तो अनमोल पत्थर निकला, जिसकी कीमत लाखों में है। लेकिन सब्जी वाले और सुनार ने इसकी असली कीमत नहीं पहचानी।”
साधु ने गहरी सांस ली और बोले, “अर्जुन, यही तुम्हारे जीवन का मूल्य है। जीवन भी इसी पत्थर की तरह अनमोल है। कुछ लोग तुम्हें कम आंकेंगे, जैसे सब्जी वाला, और कुछ तुम्हारी कुछ कीमत समझेंगे, जैसे सुनार। लेकिन असली मूल्य केवल वह समझ सकता है जो तुम्हारे वास्तविक गुणों को जानता है। यह समाज तुम्हारे जीवन की कीमत तब तक नहीं समझेगा, जब तक तुम स्वयं अपने मूल्य को नहीं समझोगे और उसे सही ढंग से नहीं प्रस्तुत करोगे। हर किसी की दृष्टि में तुम्हारा मूल्य अलग-अलग होगा, लेकिन तुम्हारे लिए तुम्हारा जीवन अनमोल है, और इसे सही दिशा में ले जाना तुम्हारा काम है।”
अर्जुन को साधु की बात समझ में आ गई। उसने महसूस किया कि जीवन का मूल्य केवल बाहरी चीजों से नहीं, बल्कि हमारे दृष्टिकोण, कर्म और अपने प्रति सम्मान से है। दूसरों की तुलना में खुद को कम आंकना और अपने जीवन को व्यर्थ समझना गलत है। जीवन की सही कीमत हमें तभी समझ में आती है, जब हम अपनी क्षमताओं का सम्मान करना और खुद पर विश्वास करना सीखते हैं।
उस दिन के बाद अर्जुन ने अपने जीवन को नई दिशा देने का निर्णय लिया। उसने अपने हर दिन को बेहतर बनाने का संकल्प लिया, और यह समझ लिया कि उसका जीवन अनमोल है। दूसरों के विचारों से प्रभावित होने के बजाय उसने अपनी सोच को सशक्त बना लिया और जीवन में आत्म-सम्मान और खुशियों को प्राथमिकता देने लगा। अब अर्जुन न केवल खुद में संतुष्ट था, बल्कि उसके परिवार और समाज में भी उसका आदर होने लगा, क्योंकि उसने अपने जीवन की कीमत को पहचान लिया था।
शिक्षा: जीवन का वास्तविक मूल्य हमारी दृष्टि और आत्म-सम्मान में है। यदि हम स्वयं को समझें और स्वीकार करें, तो दूसरों का नजरिया हमें प्रभावित नहीं करेगा। जीवन अनमोल है और इसे सही दिशा देने का उत्तरदायित्व हमारा ही है।
वास्तविक सुख
एक बार की बात है, एक राजा था जिसका नाम विक्रम सिंह था। विक्रम सिंह का राज्य बहुत बड़ा और संपन्न था, और उसके पास अपार धन-संपत्ति, सेवक, और सुख-सुविधाएँ थीं। लेकिन इसके बावजूद, राजा के मन में हमेशा बेचैनी रहती थी। उसे हमेशा ऐसा महसूस होता कि उसके जीवन में कुछ अधूरा है, और वह वास्तविक सुख नहीं पा रहा है।
राजा ने अपने राज्य के बड़े-बड़े विद्वानों, संतों और मंत्रियों से बात की, लेकिन कोई भी उसकी बेचैनी का समाधान नहीं कर पाया। एक दिन, राज्य में एक वृद्ध साधु का आगमन हुआ, जो अपनी सरलता और त्यागपूर्ण जीवन के लिए प्रसिद्ध था। लोगों ने राजा को सलाह दी कि वह उस साधु से मिलें और अपने मन की समस्या बताएं।
राजा ने साधु को अपने महल में बुलाया और उनसे पूछा, “महाराज, मेरे पास सब कुछ है — धन, वैभव, परिवार, सम्मान — लेकिन फिर भी मेरे मन में संतोष नहीं है। मुझे लगता है कि मैं सुखी नहीं हूँ। कृपया मुझे बताएं कि वास्तविक सुख कैसे प्राप्त हो सकता है?”
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, “राजन, वास्तविक सुख पाने के लिए केवल धन-संपत्ति पर्याप्त नहीं होती। इसके लिए जीवन में प्रेम, सेवा, और त्याग की भावना की आवश्यकता होती है। अगर आप सच में सुखी होना चाहते हैं तो कुछ समय के लिए अपना राज्य छोड़ दें और साधारण जीवन जिएं।”
राजा ने सोचा कि यह एक कठिन कार्य है, लेकिन सुख की प्राप्ति के लिए वह किसी भी प्रयास से पीछे हटना नहीं चाहता था। साधु के निर्देशानुसार, राजा ने कुछ दिनों के लिए अपना राज्य छोड़कर एक साधारण व्यक्ति की तरह जीवन बिताने का निश्चय किया। वह साधु के साथ अपने राज्य की सीमा से बाहर निकल गया और एक छोटे से गाँव में जाकर रहने लगा।
गाँव में पहुँचने के बाद राजा ने साधु से पूछा, “अब मैं क्या करूँ?” साधु ने उसे गाँव के लोगों की सेवा करने का कार्य दिया। राजा ने वहां के किसानों के साथ खेत में काम किया, उनकी समस्याओं को सुना और उनकी मदद की। उसने देखा कि गाँव के लोग बहुत ही साधारण जीवन जीते हैं, लेकिन फिर भी उनमें आपस में बहुत प्रेम और सहयोग है। वे थोड़े से साधनों में भी हँसी-खुशी अपना जीवन बिता रहे हैं।
एक दिन राजा की मुलाकात एक गरीब किसान परिवार से हुई। उस किसान का नाम रामू था और वह अपने छोटे से परिवार के साथ खुशी-खुशी जीवन जी रहा था। रामू का जीवन कठिन था, लेकिन उसकी आँखों में संतोष और चेहरे पर मुस्कान थी। राजा ने रामू से पूछा, “तुम्हारे पास तो बहुत कम साधन हैं, फिर भी तुम इतने प्रसन्न कैसे हो?”
रामू ने उत्तर दिया, “महाराज, सुख का राज पैसे में नहीं है, बल्कि सच्चे रिश्तों और प्रेम में है। जब हम एक-दूसरे की मदद करते हैं, साथ में भोजन करते हैं और कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो असली सुख मिलता है। मुझे तो इस परिवार के साथ मिलकर काम करने और समय बिताने में ही सबसे अधिक खुशी मिलती है।”
राजा ने रामू की बातों में एक सच्चाई महसूस की। वह समझ गया कि सुख केवल धन-दौलत में नहीं, बल्कि प्रेम, सहयोग, और सरलता में है। उसने देखा कि साधारण लोग कैसे एक-दूसरे की मदद करके अपनी खुशियों को बढ़ाते हैं और कठिनाइयों में भी मुस्कुराते हैं। राजा ने महसूस किया कि उसने अपने जीवन में केवल धन और वैभव के पीछे भागा है, लेकिन वह प्रेम और सेवा के महत्व को भूल गया था।
कुछ समय बाद राजा वापस अपने महल लौट आया। उसने अपने राज्य में एक नया बदलाव लाने का संकल्प लिया। उसने गरीबों की सहायता करने और अपने राज्य के लोगों के बीच एकता और प्रेम बढ़ाने के लिए कई योजनाएँ शुरू कीं। अब राजा विक्रम सिंह केवल एक राजा नहीं, बल्कि अपने प्रजा का सच्चा हितैषी बन गया। उसने अपने महल में भी अनावश्यक विलासिता छोड़ दी और अपना जीवन सादगी और सेवा में बिताने का निर्णय लिया।
अब राजा का जीवन संतोष और सुख से भर गया था। उसे अपने अंदर एक नई ऊर्जा और सुकून महसूस हुआ। उसने पाया कि वास्तविक सुख दूसरों की सेवा, प्रेम और सहयोग में है। महलों और धन-दौलत में वह आनंद नहीं था जो सच्चे रिश्तों और मदद के भाव में है। राजा ने अपनी प्रजा के साथ मिलकर अपने जीवन को सार्थक बना लिया और उनका राज्य प्रेम, खुशी और समृद्धि का उदाहरण बन गया।
शिक्षा: वास्तविक सुख बाहरी संपत्ति में नहीं, बल्कि प्रेम, सहयोग और सेवा के भाव में है। सच्चा सुख तभी मिलता है जब हम दूसरों के साथ मिलकर जीवन की कठिनाइयों का सामना करते हैं और अपने भीतर संतोष को अपनाते हैं।
अहंकार का परिणाम
बहुत समय पहले की बात है, एक विशाल राज्य में एक शक्तिशाली राजा राजवीर सिंह का शासन था। राजवीर सिंह बहुत वीर, साहसी और चतुर राजा थे। उनके राज्य में सुख-शांति और समृद्धि थी। लेकिन एक दोष था जो उनकी सभी अच्छाइयों पर भारी पड़ता था — उनका अहंकार। राजा को अपनी शक्ति और संपत्ति का अत्यधिक घमंड था। वे हमेशा दूसरों को नीचा दिखाने का अवसर ढूंढ़ते थे और अपने से कमज़ोर लोगों को महत्व नहीं देते थे। धीरे-धीरे उनके इस घमंड ने राज्य के लोगों के मन में असंतोष और डर पैदा कर दिया था।
एक दिन, एक विद्वान संत उनके राज्य में आए। संत बहुत प्रसिद्ध थे और उन्हें जीवन के गहरे रहस्यों का ज्ञान था। राज्य के लोग उनकी शिक्षाओं से बहुत प्रभावित थे और उनके प्रवचनों में बड़ी संख्या में लोग आने लगे। यह बात राजा को नागवार गुजरी। उन्होंने सोचा, “एक साधारण संत मेरे राज्य में आकर इतनी प्रशंसा क्यों पा रहा है? लोग मेरी बातें सुनने की बजाय उसकी बातें क्यों सुन रहे हैं?” इस विचार से उनका अहंकार आहत हुआ, और उन्होंने संत को महल में बुलाकर चुनौती देने का निर्णय लिया।
राजा ने संत को अपने दरबार में बुलाकर कहा, “संत महाराज, आप तो जीवन के बहुत बड़े ज्ञानी माने जाते हैं। मैं देखना चाहता हूँ कि क्या सच में आपके पास इतनी शक्ति और ज्ञान है कि मेरे सामने टिक सकें। यदि आप इतने ज्ञानी हैं तो मुझे मेरे अहंकार के लिए शिक्षा दें।”
संत ने राजा के घमंड को महसूस किया और विनम्रता से कहा, “महाराज, ज्ञान और शिक्षा प्राप्त करने के लिए अहंकार को छोड़ना पड़ता है। लेकिन अगर आप सच में कुछ सीखना चाहते हैं, तो मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगा। मैं आपको एक यात्रा पर ले जाना चाहता हूँ जहाँ आप स्वयं अपने अहंकार के परिणाम को देख सकेंगे।”
राजा ने संत की बात मान ली और उनके साथ यात्रा पर निकल पड़े। संत राजा को एक घने जंगल में ले गए, जहाँ दूर-दूर तक कोई आबादी नहीं थी। वहां एक छोटी सी नदी बह रही थी और उसके किनारे एक विशाल वृक्ष खड़ा था। संत ने कहा, “महाराज, इस वृक्ष के नीचे बैठकर कुछ देर ध्यान करें, और मैं अभी आता हूँ।”
राजा उस वृक्ष के नीचे बैठ गए और ध्यान करने का प्रयास करने लगे। तभी अचानक उन्हें एक आवाज सुनाई दी, “तुम्हें लगता है कि तुम सबसे ताकतवर हो, लेकिन यहाँ तुम्हारी शक्ति कुछ भी नहीं है।” राजा ने इधर-उधर देखा, लेकिन वहां कोई नहीं था। तभी अचानक हवा तेज हो गई और वृक्ष की शाखाएं हिलने लगीं।
राजा का मन अब घबराने लगा था। उन्हें लगा कि यह सब किसी अदृश्य शक्ति का काम है। वह उठने लगे, तभी संत वहाँ आ पहुँचे। संत मुस्कुराते हुए बोले, “महाराज, यह जंगल की आवाज थी जो आपको यह सिखाना चाहती थी कि प्रकृति के सामने मनुष्य की शक्ति नगण्य है। प्रकृति में विनम्रता है, और यह हमें सिखाती है कि अहंकार हमें केवल अंधेरे में ले जाता है।”
राजा ने विनम्रता से कहा, “मुझे समझ नहीं आया। आप मुझे स्पष्ट रूप से बताइए कि आखिर मेरे अहंकार का परिणाम क्या होगा।” संत ने राजा को एक कहानी सुनाई:
“एक समय की बात है, एक महान योद्धा था जिसे अपनी ताकत पर अत्यधिक घमंड था। वह हमेशा दूसरों का अपमान करता और उन्हें नीचा दिखाता। एक दिन उसकी मुलाकात एक वृद्ध साधु से हुई। साधु ने उसे चेतावनी दी कि अहंकार से केवल पतन होता है। लेकिन योद्धा ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया और अपने घमंड में चूर होकर युद्ध में गया। वहां उसने एक मामूली योद्धा से हार खा ली और उसका सब कुछ छिन गया। उसका घमंड और उसकी ताकत, दोनों समाप्त हो गए।”
राजा ने यह कहानी सुनी तो उसकी आँखें खुल गईं। उसने महसूस किया कि उसकी शक्ति और समृद्धि भी नश्वर हैं, और किसी भी क्षण सब कुछ समाप्त हो सकता है। संत ने आगे कहा, “राजन, अहंकार व्यक्ति की बुद्धि और दृष्टि को अंधा बना देता है। जब हम स्वयं को दूसरों से ऊँचा मानते हैं, तो हम सच्चे आनंद और ज्ञान से दूर हो जाते हैं।”
राजा ने विनम्र होकर संत के चरणों में सिर झुका दिया और कहा, “आपने मुझे जीवन का सच्चा ज्ञान दिया है। आज से मैं अपने अहंकार का त्याग करता हूँ और राज्य की सेवा में विनम्रता से कार्य करूंगा।”
राजा महल लौटे और उन्होंने अपने जीवन में बड़ा परिवर्तन किया। अब वे एक आदर्श राजा बन गए, जो विनम्रता और सहानुभूति के साथ अपनी प्रजा की भलाई के लिए कार्य करते थे। उनके इस बदलाव से राज्य में खुशहाली लौट आई, और लोग उनसे प्रेम और सम्मान करने लगे।
शिक्षा: अहंकार व्यक्ति को अंधा बना देता है और पतन की ओर ले जाता है। सच्चा सुख और संतोष विनम्रता में है। हमें अपनी ताकत और संपत्ति का घमंड किए बिना दूसरों के प्रति दया और सहानुभूति से पेश आना चाहिए, क्योंकि विनम्रता ही वास्तविक महानता का प्रतीक है।
ज्ञान की सीमा
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में एक पंडित रहते थे, जिन्हें अपने ज्ञान पर बहुत गर्व था। पंडितजी ने कई सालों तक वेद, पुराण और शास्त्रों का अध्ययन किया था और गाँव में सभी लोग उन्हें बहुत सम्मान देते थे। गांव का हर व्यक्ति पंडितजी के पास अपने जीवन से जुड़े सवालों और समस्याओं के समाधान के लिए आता था। पंडितजी की विद्वत्ता और आत्मविश्वास के चर्चे दूर-दूर तक थे, और यही कारण था कि पंडितजी के मन में धीरे-धीरे अहंकार आने लगा।
पंडितजी को यह विश्वास हो गया था कि उनसे अधिक ज्ञानी इस धरती पर कोई नहीं है। वे सोचते थे कि उनका ज्ञान सर्वोपरि है और जो भी उन्हें कुछ सिखाने की कोशिश करता, उसे वे अपने ज्ञान से छोटा समझते। वे अक्सर कहते, “मैंने सबकुछ पढ़ लिया है, मुझे अब किसी की सलाह की जरूरत नहीं।” धीरे-धीरे उनका अहंकार इस कदर बढ़ गया कि वे दूसरों को अपने से तुच्छ मानने लगे।
एक दिन, गांव में एक साधु आए। साधु का चेहरा शांत, मन में गहरी शांति और आँखों में करुणा थी। लोग उनकी साधना और आंतरिक ज्ञान की बात करते थे। जब पंडितजी को साधु के आने की खबर मिली, तो उन्होंने भी साधु से मिलने का निश्चय किया, लेकिन उनके मन में यह सोच थी कि वे साधु को अपने ज्ञान से प्रभावित कर देंगे।
पंडितजी साधु के पास पहुंचे और नम्रता से उनसे आशीर्वाद लिया। इसके बाद उन्होंने साधु से कहा, “मैंने वेद, उपनिषद और सभी ग्रंथों का अध्ययन किया है। मुझे आपसे कुछ विशेष जानने की इच्छा है। कृपया बताएं कि क्या आपने भी मेरे जितना अध्ययन किया है?”
साधु मुस्कुराए और बोले, “पंडितजी, ज्ञान का सागर बहुत गहरा और अनंत है। यह कभी समाप्त नहीं होता। इंसान चाहे कितना भी पढ़ ले, लेकिन सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता, क्योंकि उसके अंत तक पहुँचना असंभव है।”
पंडितजी ने साधु की बातों को अनसुना करते हुए कहा, “मेरे पास हर सवाल का जवाब है, मुझे सबकुछ ज्ञात है। अगर कोई प्रश्न है, तो आप मुझसे पूछ सकते हैं।”
साधु ने पंडितजी के चेहरे पर आए इस घमंड को देखा और एक शांत मुस्कान के साथ बोले, “पंडितजी, क्या आप समुद्र के किनारे चलने का अनुभव कर चुके हैं?”
पंडितजी ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ जवाब दिया, “हाँ, मैंने समुद्र के किनारे भी देखा है। समुद्र की लहरें आती हैं और किनारे पर पहुंच कर वापस चली जाती हैं। लेकिन इसका क्या संबंध ज्ञान से है?”
साधु ने अपनी नज़रें दूर क्षितिज की ओर केंद्रित कीं और बोले, “पंडितजी, समुद्र की हर लहर हमें यह सिखाती है कि हम उसे पकड़ने की कितनी भी कोशिश करें, वह हमारे हाथ से फिसल जाती है। उसी तरह ज्ञान भी ऐसा ही है। हम सोचते हैं कि हमने उसे पा लिया है, लेकिन हर बार जब हम नए अनुभवों से गुजरते हैं, तो हमें एहसास होता है कि अभी और सीखना बाकी है। हर व्यक्ति का जीवन अपने आप में एक अनोखा पाठ है, जो हमें रोज कुछ न कुछ सिखाता है।”
पंडितजी यह सुनकर अचंभित रह गए। उन्होंने साधु से कहा, “तो क्या इसका मतलब यह है कि जो ज्ञान मैंने प्राप्त किया है, वह अधूरा है?”
साधु मुस्कुराए और बोले, “जी हाँ, पंडितजी। ज्ञान कभी भी पूर्ण नहीं होता। जितना हम सीखते हैं, हमें उतना ही यह एहसास होता है कि हम बहुत कम जानते हैं। अहंकार में यह मान लेना कि हम सब कुछ जान गए हैं, सबसे बड़ी भूल है। सच्चा ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब हम नम्रता से स्वीकार करें कि हमारे पास सीखने के लिए हमेशा कुछ न कुछ बाकी है।”
साधु की बातें पंडितजी के दिल में गहराई तक उतर गईं। उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उन्होंने अपनी सीमाओं को नहीं समझा था। अपने ज्ञान के अहंकार में उन्होंने न केवल दूसरों को, बल्कि खुद को भी अंधकार में रखा था। उन्होंने साधु से विनम्रता के साथ माफी मांगी और कहा, “आज आपने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैं समझ गया हूँ कि ज्ञान के क्षेत्र में अहंकार का कोई स्थान नहीं है।”
उस दिन के बाद पंडितजी का व्यवहार पूरी तरह से बदल गया। अब वे नम्रता और सच्ची लगन के साथ अपने ज्ञान की खोज में लगे रहे। उनका मानना था कि सीखने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती और हर व्यक्ति से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। धीरे-धीरे, पंडितजी के पास आने वाले लोग उनकी विनम्रता और सहृदयता की प्रशंसा करने लगे।
शिक्षा: सच्चा ज्ञान वही है जो अहंकार को दूर करे। किसी भी विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना असंभव है, इसलिए विनम्रता और खुली सोच के साथ हमेशा सीखते रहना चाहिए।
स्वार्थ और मित्रता
एक समय की बात है, एक छोटे से गांव में दो अच्छे दोस्त रहते थे, जिनके नाम थे राघव और समीर। दोनों बचपन से ही एक-दूसरे के बहुत अच्छे मित्र थे और हमेशा एक-दूसरे के साथ रहते थे। दोनों की दोस्ती का रिश्ता गहरा था और वे हर सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ देते थे। राघव एक व्यापारी था, जबकि समीर एक साधारण किसान थाe।
समीर अपनी खेती-बाड़ी में व्यस्त रहता और राघव अपने व्यापार के कार्यों में डूबा रहता। लेकिन दोनों हर दिन मिलते, बातें करते और अपनी परेशानियों को एक-दूसरे से साझा करते थे। समय बीतता गया और राघव का व्यापार बहुत बढ़ गया, जबकि समीर की खेती में अच्छे परिणाम नहीं आ रहे थे।
राघव ने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए एक बड़ा निर्णय लिया। उसने अपने व्यापार के विस्तार के लिए कर्ज़ लेने का सोचा। लेकिन उसे कर्ज़ की जरूरत थी, और इसके लिए उसे किसी अपने की मदद चाहिए थी। सबसे पहले उसकी नजर समीर पर पड़ी। उसने सोचा, “समीर एक अच्छा दोस्त है, मुझे उससे मदद मिल सकती है। हालांकि, वह एक साधारण किसान है, लेकिन मैं उसे मना सकता हूं।”
राघव ने समीर से मिलकर कहा, “मित्र, मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है। मुझे अपने व्यापार के लिए काफी पैसे की आवश्यकता है और मैं जानता हूं कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो, मुझे तुमसे उधार चाहिए।” समीर थोड़ी देर तक चुप रहा, फिर उसने अपनी स्थिति के बारे में सोचा और कहा, “राघव, मैं तुम्हारी मदद जरूर करूंगा, क्योंकि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो। लेकिन मुझे यह समझना होगा कि तुम पैसे का सही उपयोग करोगे।”
राघव ने समीर को भरोसा दिलाया कि वह पैसे का सही उपयोग करेगा और समय पर उसे वापस लौटा देगा। समीर ने उसे कर्ज़ देने का निर्णय लिया और कुछ समय बाद, उसने राघव को पूरी रकम उधार दे दी।
समय बीतते-बीतते राघव ने व्यापार में अच्छा मुनाफा कमाया, लेकिन उसने समीर को अपना कर्ज वापस नहीं दिया। राघव अब व्यस्त था और उसे समीर की चिंता नहीं थी। वह सोचता, “समीर तो सिर्फ एक साधारण किसान है, वह क्या कर सकता है? मुझे तो अब और ज्यादा पैसे चाहिए, इस कर्ज़ को लौटाने में क्या फर्क पड़ता है?”
कुछ महीनों बाद, समीर ने राघव से कर्ज़ की वापसी के बारे में पूछा। राघव ने न सिर्फ उसका कर्ज़ लौटाने से इनकार किया, बल्कि उसे अनदेखा करना शुरू कर दिया। समीर बहुत दुखी हुआ, लेकिन वह फिर भी राघव से मिलने गया और उसे समझाने की कोशिश की। समीर ने कहा, “राघव, हम दोनों बचपन के दोस्त हैं। मैंने तुम्हारी मदद की थी, क्योंकि मैं तुमसे सच्ची दोस्ती करता था। अब मैं तुमसे उम्मीद करता हूं कि तुम अपना वादा पूरा करोगे।”
राघव ने हंसते हुए कहा, “तुम अब क्यों परेशान हो? तुम्हें क्या फर्क पड़ता है? मैं व्यापार में बड़ा आदमी बन चुका हूं, तुम क्या समझते हो कि तुम मेरे लिए कोई मायने रखते हो?” समीर को इस जवाब से गहरी चोट पहुंची। वह समझ गया कि राघव ने अब अपनी दोस्ती को स्वार्थ के नज़रिए से देखा था। राघव अब अपनी सफलता के मद में था और उसे अपनी मित्रता का कोई महत्व नहीं रह गया था।
समीर बहुत दुखी हुआ, लेकिन उसने फैसला किया कि वह राघव से कोई उम्मीद नहीं रखेगा। उसने राघव से अपना कर्ज़ भी माफ कर दिया, क्योंकि अब वह जान चुका था कि इस दोस्ती में सिर्फ स्वार्थ था, सच्ची मित्रता नहीं। समीर ने अपनी मेहनत पर ध्यान देना शुरू किया और धीरे-धीरे उसकी खेती भी अच्छी होने लगी।
वहीं राघव के जीवन में एक और कठिनाई आई। उसके व्यापार में अचानक मंदी आ गई और वह बड़े कर्ज़ में फंस गया। उसे अब किसी की मदद की आवश्यकता थी, लेकिन अब उसका कोई सच्चा मित्र नहीं था। जब उसने समीर से मदद की गुहार लगाई, तो समीर ने कहा, “राघव, तुम्हारे पास अब समय नहीं है मेरे साथ दोस्ती करने का, जब तुम सफल थे तो तुमने मुझे भूलकर स्वार्थी बनकर अपनी राह अलग चुनी। अब मैं तुम्हें वह मदद नहीं दे सकता, जो तुमने मुझसे उम्मीद की थी।”
राघव को समझ में आ गया कि उसने अपने स्वार्थ के कारण अपने सबसे अच्छे दोस्त को खो दिया। अब वह न केवल अपने व्यापार में असफल था, बल्कि उसकी ज़िंदगी में कोई सच्चा मित्र भी नहीं था।
समीर की तरह, वह भी समझ गया कि सच्ची मित्रता केवल स्वार्थ से नहीं, बल्कि विश्वास, ईमानदारी और मदद के भाव से बनती है।
शिक्षा: स्वार्थी व्यक्ति सच्ची मित्रता कभी नहीं पा सकता। मित्रता में विश्वास, ईमानदारी और बिना किसी स्वार्थ के मदद करना जरूरी होता है। जब हम केवल अपने स्वार्थ के लिए किसी का साथ देते हैं, तो एक समय बाद हम उसी से हाथ धो बैठते हैं।
झूठ की उम्र
एक छोटे से गांव में एक व्यापारी रहता था, जिसका नाम सुरेश था। वह बड़ा ही चालाक और अवसरवादी व्यक्ति था। सुरेश का एक बड़ा ही सजीला व्यापार था, और उसने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए कई तरह के चालाकी से काम लिया था। वह लोगों को हमेशा अपने व्यापार के बारे में ऐसे बातें बताता, जैसे उसने बहुत बड़ा लाभ कमाया हो, जबकि सच्चाई यह थी कि वह अपने व्यापार में धीरे-धीरे घाटे में जा रहा था।
सुरेश के पास एक जादुई तरीका था—वह हमेशा अपनी सफलता और संपत्ति को बढ़ा-चढ़ा कर बताता था। गांव में सभी उसे एक सफल व्यापारी मानते थे और उसकी बातों पर विश्वास करते थे। वह अक्सर अपने ठाठ-बाट और संपत्ति का दिखावा करता, जिससे लोग उसके पास आते और उससे सलाह लेने की कोशिश करते। वह अपनी जीवनशैली को इतना भव्य और आकर्षक दिखाता कि लोग उसके पास आने के लिए लालायित रहते थे।
एक दिन, गांव में एक नया व्यापारी आया, जिसका नाम रामु था। रामु बहुत ईमानदार और मेहनती था, लेकिन उसकी व्यापार में शुरुआत थी और वह बहुत साधारण तरीके से काम करता था। जब रामु ने सुरेश के बारे में सुना, तो उसे लगा कि सुरेश एक बहुत बड़ा और सफल व्यापारी है। वह सोचने लगा, “अगर मुझे भी अपने व्यापार को बढ़ाना है, तो मुझे सुरेश जैसे बनने की जरूरत है।”
रामु ने एक दिन सुरेश से मिलने का निश्चय किया। जब वह सुरेश के पास गया, तो उसने देखा कि सुरेश बहुत ही शान-शौकत के साथ बैठा हुआ था, और आसपास कई लोग उसकी बातें सुन रहे थे। रामु ने विनम्रता से सुरेश से कहा, “आपके व्यापार की सफलता के बारे में बहुत सुना है, मुझे आपके अनुभव से कुछ सीखने की जरूरत है।”
सुरेश ने हंसते हुए कहा, “देखो रामु, व्यापार में सफलता केवल दिखावे पर निर्भर नहीं होती। यह सारी सफलता मेरे कठिन परिश्रम और चतुराई का परिणाम है। मैं हमेशा बाज़ार की नब्ज़ को समझता हूं, और यही कारण है कि मैं लगातार मुनाफा कमाता हूं।”
रामु ने सुरेश की बातें सुनीं और फिर अपने व्यापार में उन्हीं रणनीतियों को अपनाने की कोशिश की। वह अब अपनी सफलता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने लगा, जैसे कि सुरेश ने किया था। वह लोगों को अपनी सफलता के झूठे दावे करने लगा, अपने लाभ को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने लगा, और हर समय अपने भव्य ठाठ-बाट का प्रचार करने लगा।
लेकिन रामु को जल्दी ही एहसास हुआ कि झूठ की उम्र बहुत कम होती है। उसका व्यापार धीमे-धीमे नुकसान में जाने लगा, क्योंकि उसने जितने झूठ बोले थे, उतने ही लोग उससे दूर हो गए। लोग अब उसकी बातों पर विश्वास नहीं करने लगे थे। उसकी साख पूरी तरह से खत्म हो गई थी। सुरेश, जो पहले उसकी मदद करने को तैयार था, अब उसे तिरस्कार करने लगा, क्योंकि रामु ने झूठ के बल पर सफलता पाने की कोशिश की थी।
कुछ महीने बाद, रामु के पास कोई ग्राहक नहीं था, और उसका व्यापार पूरी तरह से बंद हो गया। वह बहुत दुखी था, क्योंकि वह जान चुका था कि उसने अपनी सफलता को दिखावा और झूठ से हासिल करने की कोशिश की थी, और अब वह खुद ही असफल हो गया था।
वहीं सुरेश का व्यापार भी धीरे-धीरे मंदा होने लगा। उसका झूठ अब पकड़ में आ चुका था। लोग अब उसे धोखेबाज समझने लगे थे। सुरेश का मानना था कि वह जितना अपने व्यापार को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाएगा, उतना ही लोग उसके पास आएंगे, लेकिन असल में वह अपने झूठ के जाल में फंस चुका था। उसका दिखावा अब उसकी असलियत को छिपा नहीं पा रहा था।
रामु और सुरेश दोनों ही अब यह समझ चुके थे कि झूठ की उम्र बहुत छोटी होती है। किसी भी झूठ का भंडाफोड़ समय के साथ हो ही जाता है। अगर सफलता पाई भी जाती है, तो वह सच्चाई के बिना कभी स्थिर नहीं रहती।
शिक्षा: झूठ का सहारा लेकर आप किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन वह स्थायी नहीं होता। झूठ की उम्र बहुत कम होती है, और समय के साथ वह सामने आ ही जाता है। सच्चाई और ईमानदारी से ही स्थायी सफलता प्राप्त की जा सकती है।
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